पुजारियों की पेंशन पर विवाद: केजरीवाल की नई घोषणा चुनावी दांव या पुजारियों के जीवन में बदलाव की पहल?

नई दिल्ली :  दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) के नेता और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में पुजारियों और ग्रंथियों को प्रति माह ₹18,000 का वेतन देने की घोषणा की है। इस घोषणा ने सियासी गलियारों में बहस का नया अध्याय खोल दिया है। जहां एक ओर ‘आप’ पार्टी का दावा है कि इससे दिल्ली के पुजारियों का समर्थन प्राप्त हो रहा है, वहीं दूसरी ओर विपक्षी दलों और कई पुजारियों ने इस घोषणा की टाइमिंग और मंशा पर सवाल उठाए हैं।

भाजपा ने उठाए सवाल, बताया सिर्फ चुनावी रणनीति
भाजपा के मंदिर प्रकोष्ठ के पदाधिकारी आचार्य राजीव शुक्ला ने तीखा बयान देते हुए कहा कि अरविंद केजरीवाल केवल घोषणाएं करते हैं, परंतु उन्हें पूरा नहीं करते। उन्होंने कहा, “बुजुर्गों और विधवाओं को पेंशन देने की योजना तो पहले से घोषित है, लेकिन वह भी प्रभावी तरीके से लागू नहीं हुई। ऐसे में पुजारियों और ग्रंथियों को वेतन देने का यह वादा भी केवल एक चुनावी रणनीति है।”

राजीव शुक्ला ने आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि दिल्ली में करीब 20 हजार मंदिर हैं, जिनमें तीन से चार पुजारी हैं। इस प्रकार सरकार को लगभग 80,000 पुजारियों को भुगतान करना होगा। उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि सरकार के पास पहले से ही इमामों और मुअज्जिनों के वेतन के लिए पर्याप्त धन नहीं है। उन्होंने इस पूरे मुद्दे को केजरीवाल की “वोट बैंक राजनीति” का हिस्सा करार दिया।

पुजारियों के सवाल और प्रतिक्रिया
दिल्ली के कुछ पुजारियों ने इस घोषणा को सकारात्मक पहल मानते हुए इसे सराहा, लेकिन उन्होंने केजरीवाल से यह सवाल भी पूछा कि पिछले 10 वर्षों में यह मुद्दा उनकी प्राथमिकता में क्यों नहीं था। करावल नगर के पुजारी जयप्रकाश भट्ट ने कहा, “यह पहली बार है जब किसी ने हमारी समस्याओं को सामने रखा है। इसके लिए हम धन्यवाद देते हैं, लेकिन सवाल यह है कि चुनाव के समय ही ऐसा क्यों?”

उन्होंने कहा कि कई बार पुजारियों ने अपने मुद्दों को लेकर मुख्यमंत्री आवास पर प्रदर्शन किया, लेकिन सरकार ने उनकी शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया। अब जब चुनाव पास हैं, तो अचानक उनकी समस्याओं की चर्चा शुरू हो गई है।

घोषणा का व्यापक संदर्भ और चुनौतियां
अरविंद केजरीवाल के इस कदम के विरोध और समर्थन दोनों ही पक्षों की अपनी-अपनी तर्कशीलता है। समर्थक इसे पुजारियों और ग्रंथियों के आर्थिक उत्थान की दिशा में उठाया गया कदम मानते हैं, जबकि आलोचक इसे एक चुनावी चाल करार देते हैं।

इस घोषणा का कार्यान्वयन भी एक बड़ा सवाल बनकर खड़ा है। क्या सरकार इस योजना को व्यवहारिक तरीके से लागू करने में सक्षम होगी, या यह सिर्फ एक वादा बनकर रह जाएगा?

जनता के बीच उठ रहे सवाल
अरविंद केजरीवाल के इस निर्णय के बाद जनता भी सवाल उठा रही है कि क्या यह कदम लंबे समय से चली आ रही पुजारियों की आर्थिक कठिनाइयों को वाकई हल कर पाएगा, या यह केवल राजनीतिक लाभ प्राप्त करने का प्रयास है। दिल्ली में हिंदू पुजारियों और धार्मिक संगठनों के आर्थिक समर्थन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए यह मुद्दा चुनावी समीकरणों में अहम भूमिका निभा सकता है।

अंततः यह समय ही बताएगा कि यह घोषणा कितनी व्यावहारिक है और क्या यह दिल्ली के पुजारियों के जीवन को वाकई सुधार पाएगी, या फिर यह सियासी मंच पर एक और वादे के रूप में खत्म हो जाएगी।