“अमित शाह का स्पष्टता का संदेश: विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाने की दिशा में कदम”
गुजरात : गुजरात विधानसभा में विधायकों को संबोधित करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कानूनों के मसौदे में स्पष्टता के महत्व पर जोर दिया, यह कहते हुए कि यह न्यायिक हस्तक्षेप को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। उन्होंने एक दिवसीय ‘विधान प्रारूपण प्रशिक्षण कार्यशाला’ के दौरान कहा कि जब कानून बनाने वाले अस्पष्टताओं को छोड़ देते हैं, तभी न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है। अमित शाह ने स्पष्ट किया, “कानून में जितनी स्पष्टता होगी, अदालतों का हस्तक्षेप उतना ही कम होगा,” जो दर्शाता है कि विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता है।
उन्होंने अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण का उदाहरण देते हुए बताया कि जब यह अनुच्छेद संविधान का अस्थायी प्रावधान माना गया, तब इसे साधारण बहुमत से हटाया जा सका। यदि यह संवैधानिक प्रावधान होता, तो इसे हटाने के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती। इस संदर्भ में, अमित शाह ने कहा कि स्पष्टता के अभाव में न्यायालयों का हस्तक्षेप बढ़ता है, जिससे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की सीमाएँ धुंधली हो जाती हैं।
गृह मंत्री ने यह भी स्वीकार किया कि खराब मसौदे के कारण वर्तमान में विधायिका और कार्यपालिका के बीच संबंध कमजोर हो गए हैं। उन्होंने कहा, “हमारा संविधान विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिकाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है, लेकिन आज ये रेखाएँ धुंधली हो गई हैं।” उनके अनुसार, कानून बनाने की कला धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है, और इसीलिए हर विधानसभा को इस प्रकार की कार्यशालाएँ आयोजित करनी चाहिए ताकि कर्मचारियों की मसौदा तैयार करने की क्षमता को बढ़ावा दिया जा सके।
अमित शाह ने डॉ. भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में बने भारतीय संविधान को भी सराहा, जिसे उन्होंने विधायी प्रारूपण का सबसे आदर्श उदाहरण बताया। उन्होंने बताया कि संविधान सभा में 72 बैरिस्टर थे और उनका एक महत्वपूर्ण हिस्सा मौलिक अधिकारों पर चर्चा में खर्च हुआ। शाह ने यह भी कहा कि किसी भी अधिनियम का मसौदा तैयार करते समय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का ध्यान रखा जाना चाहिए, ताकि आम जनता को भी कानून की भाषा समझ में आ सके।
इस प्रकार, अमित शाह का यह संबोधन न केवल कानूनों में स्पष्टता की आवश्यकता को उजागर करता है, बल्कि यह भी इंगित करता है कि कैसे बेहतर विधायी प्रक्रियाएँ न्यायपालिका और विधायिका के बीच संतुलन को बनाए रख सकती हैं, और इससे न केवल सरकारी कार्यप्रणाली को सुधारने में मदद मिलेगी, बल्कि नागरिकों के लिए कानूनों की समझ को भी सरल बनाएगी।