सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: कैदियों के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार पर ऐतिहासिक निर्णय

 नई दिल्ली:   सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय में कैदियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने का आदेश दिया है। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि “सम्मान के साथ जीने का अधिकार” केवल सामान्य नागरिकों के लिए नहीं, बल्कि कैदियों के लिए भी समान रूप से लागू होता है।

इस निर्णय में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि कैदियों के साथ शारीरिक श्रम का विभाजन और बैरकों का विभाजन जैसे भेदभावपूर्ण अभ्यास को समाप्त किया जाना चाहिए। कोर्ट ने 10 राज्यों के जेल मैनुअल में निहित भेदभावपूर्ण नियमों को असंवैधानिक करार दिया, जिसमें उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों का हवाला देते हुए कहा कि अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव का निषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार), और 23 (जबरन श्रम के खिलाफ अधिकार) सभी कैदियों के लिए मौलिक अधिकार प्रदान करते हैं। यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि कैदियों को अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार का सामना नहीं करना चाहिए और उनके अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।

पीठ ने यह भी कहा कि कैदियों को सम्मान नहीं देना, उपनिवेशी काल की पहचान है। उन्होंने उल्लेख किया कि पूर्व-औपनिवेशिक तंत्रों में दमनकारी व्यवस्थाएं थीं, जो कैदियों को अमानवीय और अपमानित करने के लिए डिज़ाइन की गई थीं।

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अगर सरकार अपने नागरिकों के साथ भेदभाव करती है, तो यह सबसे बड़ा भेदभाव है। सरकार की भूमिका न केवल नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना है, बल्कि समाज में समानता और न्याय की भावना को बढ़ावा देना भी है।

यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के लिए एक मील का पत्थर साबित हो सकता है, क्योंकि यह कैदियों के अधिकारों की सुरक्षा और सामाजिक न्याय की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। इस फैसले से न केवल कैदियों को उनके अधिकारों का संरक्षण मिलेगा, बल्कि यह सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण पहल साबित होगा।