‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ पर गरमाई सियासत, कानून मंत्रालय और रिजिजू का कांग्रेस पर वार
नई दिल्ली: भारत में चुनावी प्रणाली की व्यापक समीक्षा करते हुए ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का प्रस्ताव लगातार चर्चा के केंद्र में बना हुआ है। केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने इस प्रस्ताव को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि यह किसी राजनीतिक दल, व्यक्ति, या सरकार के बारे में नहीं है बल्कि देशहित से जुड़ा एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है। उनका कहना है कि यह प्रणाली प्रशासन की दक्षता बढ़ाने, संसाधनों के सदुपयोग को सुनिश्चित करने, और नीतिगत स्थिरता लाने का मार्ग प्रशस्त करेगी।
संविधान (129वां संशोधन) विधेयक, 2024, जिसे ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ विधेयक के नाम से जाना जा रहा है, को केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल आज लोकसभा में पेश करेंगे। लोकसभा के एजेंडे में शामिल इस विधेयक को लेकर राजनीतिक गलियारों में हलचल तेज हो गई है। संसद से लेकर जनता तक, हर स्तर पर बहस जारी है कि यह विधेयक देश के लोकतंत्र के लिए आवश्यक सुधार है या नहीं।
एक राष्ट्र, एक चुनाव: क्यों जरूरी है यह सुधार?
कानून और न्याय मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि भारत का लोकतंत्र चुनावी प्रक्रियाओं के आधार पर कार्य करता है। स्वतंत्रता के बाद पिछले सात दशकों में, 400 से अधिक चुनाव संपन्न हो चुके हैं। यह चुनाव आयोग की निष्पक्षता और पारदर्शिता का प्रमाण है। हालांकि बार-बार होने वाले चुनावों से न केवल सरकार की कार्य क्षमता प्रभावित होती है बल्कि आर्थिक और प्रशासनिक संसाधनों पर भी अनावश्यक बोझ पड़ता है।
भारत की लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग-अलग समय पर होने के कारण, पूरे देश में चुनावी हलचल निरंतर बनी रहती है। इससे सरकारें निर्णय लेने में अस्थिरता महसूस करती हैं और विकास कार्य बाधित होते हैं। इसके समाधान के तौर पर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की विचारधारा अब राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गई है।
2024 में उच्च स्तरीय समिति ने एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें ‘एक साथ चुनाव’ की कार्ययोजना का विस्तृत प्रस्ताव दिया गया। रिपोर्ट के मुताबिक, एक बार चुनावी चक्र को पुनर्गठित किया जाए तो इससे समय, धन, और संसाधनों की बचत के साथ-साथ लोकतंत्र में सुदृढ़ता आएगी। सरकार ने 18 सितंबर 2024 को इन सिफारिशों को मंजूरी दी, जिसे चुनावी सुधारों की दिशा में बड़ा कदम माना जा रहा है।
क्या कहते हैं मंत्री किरेन रिजिजू?
किरेन रिजिजू ने कहा कि यह प्रस्ताव आज के दौर में बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए कहा कि आजादी के बाद शुरुआती दो दशकों तक पूरे देश में एक साथ चुनाव हुआ करते थे। लेकिन बाद में अनुच्छेद 356 के अनावश्यक उपयोग के चलते इस परंपरा का अंत हो गया। उन्होंने पूछा कि यदि उस समय यह प्रणाली लोकतांत्रिक और सही थी, तो क्या कांग्रेस अब उसे गलत ठहराना चाहती है? उन्होंने तर्क दिया कि बार-बार चुनावों से देश में विकास की गति प्रभावित होती है और जनता भी इससे थक जाती है।
ईवीएम विवाद और कांग्रेस पर निशाना
रिजिजू ने कांग्रेस पर तंज कसते हुए ईवीएम के मुद्दे को भी उठाया। उन्होंने कहा कि 2004 और 2009 में कांग्रेस ने ईवीएम प्रणाली से जीत दर्ज की थी। उन्होंने सवाल किया कि अगर कांग्रेस को ईवीएम पर भरोसा नहीं है, तो क्या वे यह मानते हैं कि उनके सांसद अवैध या दोषपूर्ण तरीके से चुने गए हैं? उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस जमीनी मुद्दों पर बहस करने के बजाय केवल राजनीतिक लाभ के लिए विरोध कर रही है।
एक साथ चुनाव के लाभ और चुनौतियां
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के समर्थक मानते हैं कि इससे:
- वित्तीय बचत: चुनावी प्रक्रिया पर खर्च होने वाले अरबों रुपये की बचत होगी।
- शासन की दक्षता: सरकार का समय और ऊर्जा योजनाओं के क्रियान्वयन में लगेगी, न कि चुनावी प्रचार में।
- राजनीतिक स्थिरता: बार-बार चुनावों से नीतियों के अटल क्रियान्वयन में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। एक साथ चुनाव होने से स्थिरता आएगी।
- जनता का विश्वास: लोकतांत्रिक प्रक्रिया का स्वरूप सुदृढ़ और साफ-सुथरा होगा।
हालांकि, इसके विरोधियों का मानना है कि यह संविधान की संघीय व्यवस्था के खिलाफ है और राज्यों की स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लगा सकता है।
समग्र सहमति की जरूरत
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को लेकर देश में अभी विस्तृत विचार-विमर्श होना बाकी है। यह भारत के चुनावी सुधारों में एक महत्वपूर्ण अध्याय हो सकता है, लेकिन इसका सफल क्रियान्वयन सभी दलों और राज्यों की सहमति पर निर्भर करेगा। देश की जनता भी इस ऐतिहासिक बदलाव पर अपनी नजरें गड़ाए हुए है कि यह लोकतंत्र को कितना मजबूत बना पाएगा।
