लाल बहादुर शास्त्री की जयंती: 1965 के युद्ध में लाहौर पर कब्जे की रणनीति और ‘जय जवान जय किसान’ का ऐतिहासिक नारा
2 अक्टूबर का दिन भारतीय इतिहास में दो महान नेताओं की जयंती के रूप में खास महत्व रखता है। एक ओर यह महात्मा गांधी का जन्मदिन है, जिन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से देश को आजादी दिलाई, और दूसरी ओर यह पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी है, जिनका जन्म 1904 में हुआ था। शास्त्री जी की सादगी और विनम्रता के साथ-साथ उनके दृढ़ नेतृत्व को आज भी याद किया जाता है, खासकर 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान।
लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 के युद्ध में ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया, जो देश के सैनिकों और किसानों के महत्व को रेखांकित करता है। युद्ध के दौरान एक निर्णायक क्षण आया जब शास्त्री जी ने लाहौर पर कब्जे का ऐतिहासिक निर्णय लिया। यह कहानी सितंबर 1965 की है, जब पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ कर रहा था।
कैसे लिया गया लाहौर पर कब्जे का निर्णय?
जम्मू-कश्मीर में स्थिति बिगड़ रही थी, और आधी रात को सेना प्रमुख ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से मुलाकात की। आर्मी चीफ ने शास्त्री जी से कहा कि पाकिस्तान को जवाब देने के लिए कड़ा कदम उठाने की जरूरत है। शास्त्री जी ने तत्काल लाहौर की तरफ सेना भेजने और अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार करने की मंजूरी दे दी, यह जानते हुए कि इसका क्या मतलब हो सकता है। उनका यह निर्णय पूरी लड़ाई का रुख बदलने वाला था।
युद्ध का रुख कैसे बदला?
शास्त्री जी के निर्देश के बाद भारतीय सेना ने पाकिस्तान के पंजाब और राजस्थान के क्षेत्रों में प्रवेश किया। 7 से 20 सितंबर 1965 तक सियालकोट में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें भारतीय सेना ने पाकिस्तान के 28 टैंकों पर कब्जा कर लिया। भारतीय सेना लाहौर के पास तक पहुंच गई थी और युद्ध में बढ़त बना ली थी। लेकिन 20 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के बाद युद्ध विराम का प्रस्ताव पारित किया गया, जिसके बाद पाकिस्तान ने सीजफायर की घोषणा की।
लाहौर पर कब्जा क्यों नहीं किया?
युद्धविराम के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के 710 वर्ग किलोमीटर (जो आधी दिल्ली के बराबर है) क्षेत्र पर कब्जा बनाए रखा। लाहौर पर कब्जा न करने का फैसला आज भी बहस का विषय है। उस समय शास्त्री जी ने मजाकिया अंदाज में रामलीला मैदान से कहा था, “अयूब खान ने कहा था कि वो दिल्ली तक चहलकदमी करते हुए पहुंचेंगे। मैंने सोचा, क्यों न हम ही लाहौर की तरफ बढ़कर उनका स्वागत कर लें।”
लाल बहादुर शास्त्री का नेतृत्व और उनकी निर्णय क्षमता 1965 के युद्ध के दौरान भारत को मजबूती से खड़ा करने में अहम साबित हुई। उनका यह ऐतिहासिक निर्णय आज भी देश के इतिहास में एक गौरवशाली अध्याय के रूप में दर्ज है।